उपन्यास >> सीढ़ियो पर चीता सीढ़ियो पर चीतातेजिन्दर
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सिर्फ हिन्दी ही नहीं, एक ज्वलन्त, अछूते विषय पर अब तक किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई एक अनोखी कालजयी रचना।
उत्तराखंड के देहरादून से चेन्नई जा पहुँचा भारत सरकार का एक क्लास वन सिख ऑफिसर रंधावा। समुद्र के और वहाँ के दरिद्र नारायण बाशिन्दों के करीब पहुँच जाने पर उसे अनुभव होने लगा कि ‘गरीब आदमियों की हथेलियों पर लिखी हुई रेखाएँ, पेंसिल से खींची हुई होती हैं और उन्हें मिटाने वाले सारे रबर पैसे वालों के हाथों में होते हैं।’
‘‘अंकल, आप नहीं समझते, इस डायरी के शब्दों में कितनी एनर्जी और कितना पैशन है।’’
‘‘लेकिन ये सड़ी और तर्कहीन नफरत से भरे हुए हैं....’’
‘‘पर अंकल, जागीरसिंह ठीक कहता था, मैं भी अपने रास्ते में जो आएगा, उसे छोड़ूँगा नहीं, आई विल किल हिम।’’
‘‘तुम्हारे रास्ते का मतलब?’’
‘‘समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता।’’
समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता महज शिवा के दिमाग में नहीं, अनेक विद्वानों के मस्तिष्कों से उपजा है। प्रोफेसर लक्ष्मीनारायण श्रीनिवास राघवन ने एक दिन शिव को कान्नेमारा लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ कर समझाया था - अंग्रेज कलकत्ते से ज्यादा मद्रास को प्यार करते थे, इसीलिए उन्होंने यहाँ कान्नेमारा लाइब्रेरी बनवाई। यहाँ पर जो किताबें हैं और उनमें द्रविड़ियन ज्ञान की जो फ़ायर है, वह सोने की तरह है, जिसके सामने काशी के वेद फीके हैं। ‘नो आर्यन फिलासफर कैन ईवन स्टैंड नीयरवाय।’
‘‘आप समुद्र के उस पार के द्वीप में जो लड़ाई चल रही है, उसके बारे में क्या सोचती हैं? रंधावा ने नीला नारायणन से पूछा था।’’
‘‘दे डोन्ट नो देमसेल्वस्, उन्हे क्या चाहिए। वे अपने घर के लिए लड़ रहे हैं इसीलिए हमारे घर बन रहे हैं।’’
टी. वी. पर ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत बताया जा रहा था कि बारिश से हुई बर्बादी के बाद रात के टोकन बटोरने की कोशिश में एक तमिल कल्बे में अपने ही लोगों की भीड़ से कुचलकर बयालीस लोग मर गए थे।
जागीरसिंह और शिवा दोनों दिग्भ्रमित नौजवानों ने अन्ततः अपने विचारों को सच मानते हुए, उनकी रक्षा में मौत का चोंगा ओढ़ लिया था।
उपन्यास में धड़ल्ले से किए गए तमिल वाक्यों के उपयोग से यह विश्वास नहीं हो सकता कि लेखक एक हिन्दीभाषा क्षेत्र का निवासी है।
सिर्फ हिन्दी ही नहीं, एक ज्वलन्त, अछूते विषय पर अब तक किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई एक अनोखी कालजयी रचना।
-विद्यासागर नौटियाल
‘‘अंकल, आप नहीं समझते, इस डायरी के शब्दों में कितनी एनर्जी और कितना पैशन है।’’
‘‘लेकिन ये सड़ी और तर्कहीन नफरत से भरे हुए हैं....’’
‘‘पर अंकल, जागीरसिंह ठीक कहता था, मैं भी अपने रास्ते में जो आएगा, उसे छोड़ूँगा नहीं, आई विल किल हिम।’’
‘‘तुम्हारे रास्ते का मतलब?’’
‘‘समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता।’’
समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता महज शिवा के दिमाग में नहीं, अनेक विद्वानों के मस्तिष्कों से उपजा है। प्रोफेसर लक्ष्मीनारायण श्रीनिवास राघवन ने एक दिन शिव को कान्नेमारा लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ कर समझाया था - अंग्रेज कलकत्ते से ज्यादा मद्रास को प्यार करते थे, इसीलिए उन्होंने यहाँ कान्नेमारा लाइब्रेरी बनवाई। यहाँ पर जो किताबें हैं और उनमें द्रविड़ियन ज्ञान की जो फ़ायर है, वह सोने की तरह है, जिसके सामने काशी के वेद फीके हैं। ‘नो आर्यन फिलासफर कैन ईवन स्टैंड नीयरवाय।’
‘‘आप समुद्र के उस पार के द्वीप में जो लड़ाई चल रही है, उसके बारे में क्या सोचती हैं? रंधावा ने नीला नारायणन से पूछा था।’’
‘‘दे डोन्ट नो देमसेल्वस्, उन्हे क्या चाहिए। वे अपने घर के लिए लड़ रहे हैं इसीलिए हमारे घर बन रहे हैं।’’
टी. वी. पर ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत बताया जा रहा था कि बारिश से हुई बर्बादी के बाद रात के टोकन बटोरने की कोशिश में एक तमिल कल्बे में अपने ही लोगों की भीड़ से कुचलकर बयालीस लोग मर गए थे।
जागीरसिंह और शिवा दोनों दिग्भ्रमित नौजवानों ने अन्ततः अपने विचारों को सच मानते हुए, उनकी रक्षा में मौत का चोंगा ओढ़ लिया था।
उपन्यास में धड़ल्ले से किए गए तमिल वाक्यों के उपयोग से यह विश्वास नहीं हो सकता कि लेखक एक हिन्दीभाषा क्षेत्र का निवासी है।
सिर्फ हिन्दी ही नहीं, एक ज्वलन्त, अछूते विषय पर अब तक किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई एक अनोखी कालजयी रचना।
-विद्यासागर नौटियाल
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